मुंबई, 13 अक्टूबर। भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में एक अद्वितीय नाम, पंडित निखिल रंजन बनर्जी, एक प्रसिद्ध सितार वादक थे। उनके सितार की धुनें सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं, जैसे कि वे आत्मा की गहराइयों से निकल रही हों। उनकी वादन शैली में एक अद्भुत आध्यात्मिकता और शांति थी, जिसने उन्हें अपने समकालीनों, जैसे पंडित रविशंकर और उस्ताद विलायत खान से अलग पहचान दिलाई।
14 अक्टूबर 1931 को कोलकाता में जन्मे निखिल का संगीत से गहरा संबंध था, जो उनके परिवार की परंपरा से जुड़ा हुआ था। उनके पिता, जितेंद्रनाथ बनर्जी, सितार बजाने के शौकीन थे, और यहीं से नन्हे निखिल के भीतर संगीत की पहली चिंगारी जली। नौ साल की उम्र में, उन्होंने सितार की तारों को इस तरह छुआ कि जैसे वे उनके दिल की धड़कन हों। मैहर घराने के महान उस्ताद अलाउद्दीन खान के शिष्य बनकर, निखिल ने सितार को एक नई पहचान दी।
उनकी वादन में रागों की शुद्धता और भावनाओं की गहराई का अद्भुत मेल था, जिससे श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। चाहे वह राग मारवा की तीव्रता हो या दरबारी की शांति, निखिल की उंगलियां हर राग को एक कहानी में बदल देती थीं।
पंडित रविशंकर और उस्ताद विलायत खान जैसे दिग्गजों के बीच, निखिल ने न केवल एक वादक के रूप में, बल्कि एक साधक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। उनके संगीत ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को वैश्विक मंच पर नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। न्यूयॉर्क से लंदन तक, उनके संगीत समारोहों में श्रोता समय को भूल जाते थे।
उन्हें 1968 में पद्मश्री, 1974 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और मरणोपरांत 1987 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनकी कला में जो गहराई और तकनीकी शुद्धता थी, वह केवल प्रतिभा नहीं थी, बल्कि गुरु के कठोर अनुशासन और समर्पण का परिणाम थी।
निखिल बनर्जी की साधना और उनके गुरु के साथ के रिश्ते के बारे में स्वप्न बंद्योपाध्याय की किताब 'निखिल बनर्जी: डाउन दा हॉर्ट ऑफ सितार' में विस्तार से बताया गया है। यह जीवनी बताती है कि कैसे युवा निखिल, जो पहले से ही कलकत्ता में प्रसिद्ध थे, अपने गुरु उस्ताद अलाउद्दीन खान के पास तालीम लेने पहुंचे।
गुरु की कठोरता के बावजूद, निखिल ने अपने वादन से उन्हें प्रभावित किया और उनकी ट्रेनिंग शुरू हुई। यह प्रशिक्षण सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक चलता था, जिसमें उन्हें घंटों तक 'पलटा' और 'अलंकार' जैसे मूलभूत अभ्यास करने पड़ते थे।
पंडित निखिल बनर्जी की महानता उनके आत्म-समर्पण में थी, जिसने उन्हें संगीत के माध्यम से जीवन जीने की कला सिखाई। 27 जनवरी 1986 को, केवल 54 वर्ष की आयु में, उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनके स्वर आज भी गूंजते हैं।